मैं संदीप सिंह सम्राट आप सभी को हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। आप सभी से मेरा विनम्र निवेदन है—“प्रकृति नमामि जीवनम्”—कि धरती पर जीवन को कायम रखने के लिए, समस्त जीव-जगत तथा पूरी मानवजाति के भविष्य की रक्षा हेतु हम सभी को एकजुट होकर प्रकृति को बचाना होगा।इसी से हमारा अपना जीवन सुरक्षित रह पाएगा और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य भी सुरक्षित हो सकेगा।धरती सभी जीवों का एकमात्र घर है, और हम मनुष्य भी इसी घर के निवासी हैं। हमारा पहला और वास्तविक घर यही धरती है। इसलिए हमें अपने इस घर की रक्षा करनी अनिवार्य है। धरती के सभी जीव हमारे अपने हैं, और उनकी सुरक्षा करना हमारा कर्तव्य है। हम सब प्रकृति की संतान हैं, और संतान का धर्म है कि वह अपनी माँ—माँ प्रकृति—की रक्षा करे, उसका आदर करे तथा उसके संरक्षण हेतु कार्य करे।धरती पर रहने वाला प्रत्येक जीव प्रकृति की ही संतान है—हमारा भाई, हमारी बहन। हमें सभी की सुरक्षा करनी है। हम सबको मिलकर प्रकृति को बचाना है, अपने घर को सुरक्षित रखना है और अपने प्राकृतिक परिवार को संरक्षित रखना है।
आइए, हम सब मिलकर अपने घर की रक्षा करें, उसे सुंदर बनाएँ और प्रकृति को पुनः खुशहाल करें।
हमारी मुहिम “एक धरती – एक भविष्य” में शामिल होकर अपना महत्वपूर्ण योगदान दें। हमारी बात को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाएँ, ताकि हम सब मिलकर प्रकृति को पुनः पहले जैसा शांत, सुंदर और समृद्ध बना सकें।
आप सभी से निवेदन है कि हमारी इस पुण्य मुहिम को आगे बढ़ाने में सहयोग दें। हम आपसे कुछ नहीं माँगते—बस इतना अनुरोध करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाए और इस संदेश को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाए।
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भाग 5: ईश्वर, स्वतंत्रता और जिम्मेदारी
ईश्वर के अस्तित्व और मानव की स्वतंत्रता का प्रश्न प्रकृति और जीवन के संतुलन को समझने के लिए महत्वपूर्ण है।सभी धर्मों और संस्कृतियों में पृथ्वी और जीवन को ईश्वर की सृष्टि माना गया है।प्रत्येक जीव को जीवन का अधिकार और स्वतंत्रता दी गई है।इस स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि प्रत्येक जीव अपने कर्मों के आधार पर निर्णय लेने में सक्षम है।मनुष्य इस स्वतंत्रता का सबसे बड़ा लाभ और सबसे बड़ा दुरुपयोग करता है।यदि मनुष्य अपनी बुद्धि और ज्ञान का उपयोग संतुलन बनाए रखने के लिए करे तो जीवन तंत्र में सामंजस्य बना रहता है, पर यदि लालच, स्वार्थ और अज्ञान के कारण दुरुपयोग करे, तो इसका प्रभाव केवल मानव तक सीमित नहीं रहता, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ता है।विश्व की प्रमुख रिपोर्टें, जैसे IPCC AR6, UNEP Global Environment Outlook, WWF Living Planet Report और EGR 2025, इस तथ्य को स्पष्ट करती हैं कि मानव द्वारा किए गए असंतुलित कार्य आज पृथ्वी के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में उभर रहे हैं।IPCC AR6 में कहा गया है कि यदि वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5°C तक सीमित नहीं किया गया, तो समुद्र का स्तर बढ़ेगा, ध्रुवीय और भूमध्यरेखा क्षेत्र असाधारण रूप से प्रभावित होंगे और प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता बढ़ जाएगी।UNEP GEO रिपोर्ट में बताया गया है कि भूमि और जल संसाधनों का अत्यधिक दोहन और वनों की कटाई पारिस्थितिकी तंत्र को कमजोर कर रही है।WWF Living Planet Report में उल्लेख है कि केवल पिछले पचास वर्षों में पृथ्वी पर जीवों की संख्या में लगभग 70% की गिरावट आई है।EGR 2025 रिपोर्ट चेतावनी देती है कि वैश्विक उत्सर्जन अब 57.7 GtCO₂e तक पहुँच गया है और पिछले दशक की औसत वृद्धि दर से चार गुना तेज़ है।इन निष्कर्षों से स्पष्ट है कि मानव की स्वतंत्रता का दुरुपयोग आज पृथ्वी और सभी जीवों के लिए गंभीर खतरा बन गया है।
ईश्वर ने प्रत्येक जीव को स्वतंत्रता दी है।इस स्वतंत्रता के कारण ही मानव अपनी बुद्धि और शक्ति का प्रयोग कर सकता है।यदि मानव सही दिशा में कार्य करे तो जीवन, ऊर्जा और प्रकृति के संतुलन में सहयोग होता है।परंतु यदि मानव स्वार्थ, लालच और अज्ञान के कारण असंतुलित कार्य करता है, तो इसका प्रभाव पूरे तंत्र पर पड़ता है।यह प्रभाव केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं है, बल्कि मानव के जीवन, स्वास्थ्य और समाज पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है।प्रकृति और मानव ऊर्जा और चेतना के स्तर पर जुड़ी हुई हैं।मनुष्य के भीतर जो प्राण ऊर्जा है, वही ऊर्जा पृथ्वी और सभी जीवों में व्याप्त है।यदि मानव अपनी ऊर्जा का दुरुपयोग करता है, तो इसका परिणाम विनाश के रूप में सामने आता है।
ईश्वर मौन है, क्योंकि उसने प्रत्येक जीव को स्वतंत्रता दी है।प्रत्येक जीव अपने कर्मों का परिणाम भुगतता है।मनुष्य यह जानता है कि उसके कार्यों से वातावरण प्रदूषित हो रहा है, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, कई प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और कई विलुप्त होने की कगार पर हैं।फिर भी मानव संतुलन बनाए रखने में असफल है।मनुष्य का यह अज्ञान और स्वार्थ आज प्रकृति के विनाश का सबसे बड़ा कारण है।प्रकृति सहनशील है, पर उसकी सहनशीलता असीमित नहीं है।मानव के अत्याचार और असंतुलित व्यवहार से प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं।जब प्रकृति तांडव करती है, तो सूखा, बाढ़, तूफान, जंगल की आग जैसी घटनाएँ उत्पन्न होती हैं।इनसे सबसे अधिक नुकसान अन्य जीवों को होता है, क्योंकि मानव अपनी बुद्धि से इन नुकसान की भरपाई कर सकता है।इसलिए मानव का दायित्व दोगुना हो जाता है कि वह अपने कर्मों का प्रभाव समझे और सतत जीवन की दिशा में कार्य करे।
मानव और प्रकृति के बीच ज्ञान और ऊर्जा का संचार मानव के मस्तिष्क में प्राप्त ज्ञान के माध्यम से होता है।मनुष्य का मस्तिष्क सर्च इंजन की तरह कार्य करता है और प्रकृति की ऊर्जा इंटरनेट का काम करती है।मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग सही दिशा में कर सकता है, पर यदि वह अज्ञान और स्वार्थ में कार्य करता है, तो परिणाम विनाश के रूप में सामने आता है।ईश्वर मौन है, प्रकृति शांत है, पर जब तांडव करती है, तो विनाशकारी होती है।इसलिए मानव को समझना चाहिए कि प्रत्येक कार्य से पहले उसे यह विचार करना चाहिए कि उसके कार्य का प्रभाव प्रकृति और जीवन पर कितना होगा।यदि ऐसा सोचकर कार्य किया जाए, तो मानव प्रकृति को सुरक्षित रखने में योगदान दे सकता है।
मानव के कर्म और ईश्वर की स्वतंत्रता का यह संतुलन मानव के नैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण को परखता है।यदि मानव अपनी बुद्धि, चेतना और ज्ञान का प्रयोग संतुलन बनाए रखने के लिए करे, तो वह प्रकृति के रक्षक बन सकता है।यदि वह अज्ञान और स्वार्थ का पालन करता है, तो विनाशकारी परिणाम अनिवार्य हैं।विश्व की प्रमुख रिपोर्टों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि मानव के प्रत्येक कार्य का प्रभाव पृथ्वी, जीवन ऊर्जा और सभी जीवों पर समान रूप से पड़ता है।EGR 2025, IPCC AR6, UNEP GEO और WWF Living Planet Report सभी यही चेतावनी देती हैं कि मानव को अपनी स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी समझनी होगी।
भाग 6: मानव और प्राकृतिक संतुलन
मानव की गतिविधियाँ आज पृथ्वी के प्राकृतिक संतुलन के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गई हैं।मनुष्य ने तकनीक, उद्योग और उत्पादन में वृद्धि की है, परंतु इस वृद्धि के परिणामस्वरूप प्राकृतिक तंत्र असंतुलित हो गया है।विश्व की प्रमुख रिपोर्टें जैसे IPCC AR6, UNEP Global Environment Outlook, WWF Living Planet Report और EGR 2025 यह स्पष्ट करती हैं कि मानव गतिविधियों के कारण जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, जैव विविधता की हानि और प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता बढ़ी है।IPCC AR6 में कहा गया है कि यदि मानव ने उत्सर्जन में कमी नहीं की तो 2°C से अधिक तापमान वृद्धि लगभग निश्चित है, जिससे समुद्र का स्तर बढ़ेगा और प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता बढ़ेगी।UNEP GEO रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि भूमि और जल संसाधनों का अत्यधिक दोहन, वनों की कटाई और औद्योगिकीकरण पारिस्थितिकी तंत्र को कमजोर कर रहे हैं।WWF Living Planet Report में उल्लेख है कि केवल पिछले पचास वर्षों में जीवों की संख्या में लगभग 70% की गिरावट आई है।EGR 2025 में चेतावनी दी गई है कि वैश्विक उत्सर्जन अब 57.7 GtCO₂e तक पहुँच गया है और यह पिछले दशक की औसत वृद्धि दर से चार गुना तेज़ है।इन तुलनात्मक निष्कर्षों से स्पष्ट है कि मानव का प्रत्येक कार्य केवल मानव तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे जीवन तंत्र पर प्रभाव डालता है।
मानव अपने स्वार्थ, लालच और तात्कालिक लाभ के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर रहा है।वनों की कटाई, जल स्रोतों का अंधाधुंध उपयोग, वायु और जल प्रदूषण, औद्योगिक कचरा और जीवाश्म ईंधन का अत्यधिक प्रयोग प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ रहा है।मनुष्य जानता है कि उसके कार्यों से पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, जैव विविधता घट रही है और प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, फिर भी वह संतुलन बनाए रखने में असफल है।यह अज्ञान और स्वार्थ ही आज मानव द्वारा प्रकृति के विनाश का मूल कारण है।
मनुष्य और प्रकृति ऊर्जा और चेतना के स्तर पर जुड़े हुए हैं।मनुष्य के भीतर जो प्राण ऊर्जा है, वही ऊर्जा पृथ्वी और सभी जीवों में व्याप्त है।यदि मानव अपनी ऊर्जा का दुरुपयोग करता है, तो इसका परिणाम विनाश के रूप में सामने आता है।भौतिक ऊर्जा, चेतना और ज्ञान का यह तंत्र सभी जीवों में समान रूप से फैलता है।प्रकृति अपने तंत्र के माध्यम से जीवन का निर्माण और विनाश करती है।जब मनुष्य ऐसा कार्य करता है जिससे प्रकृति को नुकसान होता है, तो ईश्वर या प्रकृति उसे रोकते नहीं क्योंकि प्रत्येक जीव को कार्य करने की स्वतंत्रता दी गई है।इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग ही आज प्रकृति के विनाश का मूल कारण है।
प्रकृति सहनशील है पर उसकी सहनशीलता की सीमा असीमित नहीं है।मानव की अज्ञानता, लालच और असंतुलित गतिविधियाँ प्राकृतिक आपदाओं का कारण बनती हैं।जब प्रकृति तांडव करती है, तो सूखा, बाढ़, तूफान, जंगल की आग जैसी घटनाएँ उत्पन्न होती हैं।इनसे सबसे अधिक नुकसान अन्य जीवों को होता है, क्योंकि मानव अपनी बुद्धि से इन नुकसान की भरपाई कर सकता है।इसलिए मानव का दायित्व दोगुना हो जाता है कि वह अपने कर्मों का प्रभाव समझे और सतत जीवन की दिशा में कार्य करे।
मानव और प्रकृति के बीच ज्ञान और ऊर्जा का संचार मानव के मस्तिष्क में प्राप्त ज्ञान के माध्यम से होता है।मनुष्य का मस्तिष्क सर्च इंजन की तरह कार्य करता है और प्रकृति की ऊर्जा इंटरनेट का काम करती है।मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग सही दिशा में कर सकता है, पर यदि वह अज्ञान और स्वार्थ में कार्य करता है, तो परिणाम विनाश के रूप में सामने आता है।ईश्वर मौन है, प्रकृति शांत है, पर जब तांडव करती है, तो विनाशकारी होती है।इसलिए मानव को समझना चाहिए कि प्रत्येक कार्य से पहले उसे यह विचार करना चाहिए कि उसके कार्य का प्रभाव प्रकृति और जीवन पर कितना होगा।यदि ऐसा सोचकर कार्य किया जाए, तो मानव प्रकृति को सुरक्षित रखने में योगदान दे सकता है।
मानव के कर्म और ईश्वर की स्वतंत्रता का यह संतुलन मानव के नैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण को परखता है।यदि मानव अपनी बुद्धि, चेतना और ज्ञान का प्रयोग संतुलन बनाए रखने के लिए करे, तो वह प्रकृति का रक्षक बन सकता है।यदि वह अज्ञान और स्वार्थ का पालन करता है, तो विनाशकारी परिणाम अनिवार्य हैं।विश्व की प्रमुख रिपोर्टों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि मानव के प्रत्येक कार्य का प्रभाव पृथ्वी, जीवन ऊर्जा और सभी जीवों पर समान रूप से पड़ता है।EGR 2025, IPCC AR6, UNEP GEO और WWF Living Planet Report सभी यही चेतावनी देती हैं कि मानव को अपनी स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी समझनी होगी।
मानव, प्रकृति और ईश्वर: जिम्मेदारी और विनाश
मानव और प्रकृति का संबंध केवल भौतिक नहीं है, बल्कि यह चेतना, ऊर्जा और जीवन तंत्र के स्तर पर जुड़ा हुआ है।मनुष्य अपनी बुद्धि और स्वतंत्रता के कारण पृथ्वी पर सर्वोच्च शक्ति का मालिक है, परंतु यही बुद्धि और स्वतंत्रता आज मानव को विनाशकारी गतिविधियों की ओर ले जा रही है।विश्व की प्रमुख रिपोर्टें जैसे IPCC AR6, UNEP Global Environment Outlook, WWF Living Planet Report और EGR 2025 स्पष्ट करती हैं कि मानव की गतिविधियों के कारण जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, जैव विविधता में गिरावट, जल और वायु प्रदूषण और प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता बढ़ी है।IPCC AR6 में कहा गया है कि यदि मानव ने उत्सर्जन में कमी नहीं की, तो वैश्विक तापमान 2°C से अधिक बढ़ सकता है, जिससे समुद्र का स्तर बढ़ेगा, ध्रुवीय और भूमध्यरेखा क्षेत्र प्रभावित होंगे और प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता असाधारण रूप से बढ़ेगी।UNEP GEO रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि भूमि और जल संसाधनों का अत्यधिक दोहन, वनों की कटाई और औद्योगिकीकरण पारिस्थितिकी तंत्र को कमजोर कर रहे हैं।WWF Living Planet Report में उल्लेख है कि केवल पिछले पचास वर्षों में पृथ्वी पर जीवों की संख्या में लगभग 70% की गिरावट आई है।EGR 2025 में चेतावनी दी गई है कि वैश्विक उत्सर्जन अब 57.7 GtCO₂e तक पहुँच गया है और यह पिछले दशक की औसत वृद्धि दर से चार गुना तेज़ है।इन निष्कर्षों से स्पष्ट है कि मानव का प्रत्येक कार्य केवल मानव तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे जीवन तंत्र पर प्रभाव डालता है।
मानव ने तकनीक, औद्योगिक उत्पादन और विज्ञान के क्षेत्र में असाधारण उन्नति की है, परंतु इस उन्नति के साथ उसके स्वार्थ, लालच और तात्कालिक लाभ की प्रवृत्ति ने प्राकृतिक संतुलन को पूरी तरह असंतुलित कर दिया है।वनों की कटाई, जल स्रोतों का अंधाधुंध दोहन, वायु और जल प्रदूषण, औद्योगिक अपशिष्ट, जीवाश्म ईंधन का अत्यधिक प्रयोग, समुद्री जीवन पर अत्याचार, और भूमि का अंधाधुंध शोषण इस असंतुलन के मुख्य कारण हैं।मनुष्य जानता है कि उसके कार्यों से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, जैव विविधता घट रही है और कई प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने की कगार पर हैं, फिर भी वह अपनी सुविधा और लाभ के लिए प्रकृति का विनाश कर रहा है।यह अज्ञान और स्वार्थ ही आज मानव द्वारा प्रकृति के विनाश का मूल कारण है।
मनुष्य और प्रकृति ऊर्जा और चेतना के स्तर पर जुड़े हुए हैं।मनुष्य के भीतर जो प्राण ऊर्जा है, वही ऊर्जा पृथ्वी और सभी जीवों में व्याप्त है।यदि मानव अपनी ऊर्जा का दुरुपयोग करता है, तो इसका प्रभाव सीधे उसके जीवन, स्वास्थ्य और मानसिक स्थिति पर पड़ता है।भौतिक ऊर्जा, चेतना और ज्ञान का यह तंत्र सभी जीवों में समान रूप से फैलता है।प्रकृति अपने तंत्र के माध्यम से जीवन का निर्माण और विनाश करती है।जब मानव ऐसा कार्य करता है जिससे प्रकृति को नुकसान होता है, तो ईश्वर या प्रकृति उसे रोकते नहीं क्योंकि प्रत्येक जीव को कार्य करने की स्वतंत्रता दी गई है।इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग ही आज प्रकृति के विनाश का मूल कारण है।
ईश्वर ने प्रत्येक जीव को स्वतंत्रता दी है, ताकि वह अपने कर्मों का परिणाम भुगत सके।मनुष्य को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वह ज्ञान, चेतना और ऊर्जा का प्रयोग कर जीवन और प्रकृति के संतुलन को बनाए रख सके।यदि मानव स्वार्थ, लालच और अज्ञान के कारण असंतुलित कार्य करता है, तो इसका प्रभाव केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं है, बल्कि मानव के जीवन, स्वास्थ्य और समाज पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है।विश्व की प्रमुख रिपोर्टों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि मानव की प्रत्येक गतिविधि पृथ्वी, जीवन ऊर्जा और सभी जीवों पर समान रूप से प्रभाव डालती है।
प्रकृति सहनशील है, पर उसकी सहनशीलता असीमित नहीं है।मानव की अज्ञानता, लालच और असंतुलित गतिविधियाँ प्राकृतिक आपदाओं का कारण बनती हैं।जब प्रकृति तांडव करती है, तो सूखा, बाढ़, तूफान, जंगल की आग जैसी घटनाएँ उत्पन्न होती हैं।इनसे सबसे अधिक नुकसान अन्य जीवों को होता है क्योंकि मानव अपनी बुद्धि से इन नुकसान की भरपाई कर सकता है।इसलिए मानव का दायित्व दोगुना है कि वह अपने कर्मों का प्रभाव समझे और सतत जीवन की दिशा में कार्य करे।
मनुष्य और प्रकृति के बीच ज्ञान और ऊर्जा का संचार मानव मस्तिष्क में प्राप्त ज्ञान के माध्यम से होता है।मनुष्य का मस्तिष्क सर्च इंजन की तरह कार्य करता है और प्रकृति की ऊर्जा इंटरनेट का काम करती है।मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग सही दिशा में कर सकता है, पर यदि वह अज्ञान और स्वार्थ में कार्य करता है, तो परिणाम विनाश के रूप में सामने आता है।ईश्वर मौन है, प्रकृति शांत है, पर जब तांडव करती है, तो विनाशकारी होती है।इसलिए मानव को समझना चाहिए कि प्रत्येक कार्य से पहले उसे यह विचार करना चाहिए कि उसके कार्य का प्रभाव प्रकृति और जीवन पर कितना होगा।यदि ऐसा सोचकर कार्य किया जाए, तो मानव प्रकृति को सुरक्षित रखने में योगदान दे सकता है।
मानव का ज्ञान और चेतना उसे पृथ्वी और प्राकृतिक ऊर्जा को समझने की क्षमता देती है।यदि मानव अपनी बुद्धि का प्रयोग केवल लाभ और सुविधा के लिए करता है, तो वह अपने जीवन और अन्य जीवों के जीवन पर विनाशकारी प्रभाव डालता है।मनुष्य को यह समझना चाहिए कि प्रत्येक कार्य का परिणाम केवल उसी तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ता है।EGR 2025, IPCC AR6, UNEP GEO और WWF Living Planet Report सभी यही चेतावनी देती हैं कि मानव को अपनी स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी भी समझनी होगी।
मानव और प्रकृति का यह संबंध केवल भौतिक नहीं है, बल्कि यह चेतना, ऊर्जा और जीवन तंत्र के स्तर पर जुड़ा हुआ है।मनुष्य अपनी बुद्धि और स्वतंत्रता के कारण पृथ्वी पर सर्वोच्च शक्ति का मालिक है, परंतु यही बुद्धि और स्वतंत्रता आज मानव को विनाशकारी गतिविधियों की ओर ले जा रही है।मानव ने तकनीक, औद्योगिक उत्पादन और विज्ञान के क्षेत्र में असाधारण उन्नति की है, परंतु इस उन्नति के साथ उसके स्वार्थ, लालच और तात्कालिक लाभ की प्रवृत्ति ने प्राकृतिक संतुलन को पूरी तरह असंतुलित कर दिया है।वनों की कटाई, जल स्रोतों का अंधाधुंध दोहन, वायु और जल प्रदूषण, औद्योगिक अपशिष्ट, जीवाश्म ईंधन का अत्यधिक प्रयोग, समुद्री जीवन पर अत्याचार, और भूमि का अंधाधुंध शोषण इस असंतुलन के मुख्य कारण हैं।
मनुष्य और प्रकृति ऊर्जा और चेतना के स्तर पर जुड़े हुए हैं।मनुष्य के भीतर जो प्राण ऊर्जा है, वही ऊर्जा पृथ्वी और सभी जीवों में व्याप्त है।यदि मानव अपनी ऊर्जा का दुरुपयोग करता है, तो इसका प्रभाव सीधे उसके जीवन, स्वास्थ्य और मानसिक स्थिति पर पड़ता है।भौतिक ऊर्जा, चेतना और ज्ञान का यह तंत्र सभी जीवों में समान रूप से फैलता है।प्रकृति अपने तंत्र के माध्यम से जीवन का निर्माण और विनाश करती है।जब मानव ऐसा कार्य करता है जिससे प्रकृति को नुकसान होता है, तो ईश्वर या प्रकृति उसे रोकते नहीं क्योंकि प्रत्येक जीव को कार्य करने की स्वतंत्रता दी गई है।
ईश्वर मौन है, क्योंकि उसने प्रत्येक जीव को स्वतंत्रता दी है।प्रत्येक जीव अपने कर्मों का परिणाम भुगतता है।मनुष्य यह जानता है कि उसके कार्यों से वातावरण प्रदूषित हो रहा है, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, कई प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और कई विलुप्त होने की कगार पर हैं।फिर भी मानव संतुलन बनाए रखने में असफल है।मनुष्य का यह अज्ञान और स्वार्थ आज प्रकृति के विनाश का सबसे बड़ा कारण है।प्रकृति सहनशील है, पर उसकी सहनशीलता असीमित नहीं है।
“यह अंश हमारी पुस्तक सर्व साम्य अद्वैत प्रकृति चेतनवाद दर्शन — भाग 1 : नव सवित तत्व प्रकृतिवाद से लिया गया है। इस पुस्तक का उद्देश्य प्रकृति की सर्वोच्च सत्ता की स्थापना करके विश्व में शांति स्थापित करना है, ताकि धरती पर रहने वाले सभी जीवों के जीवन में शांति बनी रहे, मनुष्य के जीवन में भी संतुलन और सौहार्द रहे, तथा सभी मनुष्य आपस में मिल-जुलकर अपने विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकें। हमारी प्रकृति से प्रार्थना है कि धरती पर स्थित प्रत्येक जीव सुखी रहे, स्वस्थ रहे।” आप भी चाहते हैं विश्व में शांति तो हमसे संपर्क करें।
जीमेल-: cosmicadvaiticconsciousism@gmail.com
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