शरणार्थी (refugee) उस व्यक्ति को कहा जाता है जो अपने देश की सीमाएँ इसलिए पार करके किसी अन्य देश में शरण लेता है क्योंकि उसके अपने देश में उसे उत्पीड़न, हिंसा, युद्ध, मानवाधिकारों का उल्लंघन, जातीय/धार्मिक/राजनीतिक वजह से जान का, आज़ादी का, या सुरक्षित जीवन का जोखिम होता है और वह अपने देश में लौट कर सुरक्षित जीवन की उम्मीद नहीं कर सकता। अंतरराष्ट्रीय क़ानून—विशेषकर 1951 की शरणार्थी कन्वेंशन और उसका 1967 प्रोटोकॉल—इस परिभाषा को कानूनी रूप देते हैं और रिफ्यूजी को मिलने वाले मौलिक अधिकारों तथा आश्रय की सीमाओं को निर्धारित करते हैं। शरणार्थी की परिभाषा और ह्यूमन-राइट्स फ्रेमवर्क इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह तय करता है कि किसी व्यक्ति को किन स्थितियों में बाहरी सुरक्षा, अस्थायी आवास, भोजन, स्वास्थ्य तथा कानूनी मदद मिलनी चाहिए। शरणार्थी भिन्न हैं — कुछ राजनीतिक उत्पीड़न से भागते हैं, कुछ युद्ध और ग्राउंड कॉन्फ्लिक्ट से, कुछ धर्म या जातीय शोषण से, और कुछ पर्यावरणीय तबाही (जैसे सूखा, बाढ़, समुद्री स्तर का बढ़ना) या आर्थिक विफलता-उन्मुख हिंसा के कारण पलायन करते हैं। शरणार्थी और प्रवासी (migrant) में फर्क समझना जरूरी है: प्रवासी अक्सर बेहतर रोज़गार/जीवन अवसर की तलाश में स्वेच्छापूर्वक देश छोड़ते हैं जबकि शरणार्थी को मजबूरी में सुरक्षित ठिकाना ढूँढना पड़ता है और वे लौटने पर जोखिम का सामना कर सकते हैं। शरणार्थी संकट केवल व्यक्तिगत पीड़ा का मामला नहीं—यह सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा, आर्थिक बोझ, सामाजिक अस्थिरता और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का मशीनी हिस्सा बन जाता है। शरणार्थियों की मांगों से प्रभावित देशों (आश्रय देने वाले देशों) पर दबाव बढ़ता है—बुनियादी सेवाओं जैसे पानी, स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास पर भार आता है; स्थानीय कार्यबल और भीड़-भाड़ की समस्याएँ जन्म लेती हैं; और कभी-कभी राजनीतिक ध्रुवीकरण व स्थानीय-राष्ट्रीय स्तर पर तनाव भी बढ़ते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो शरणार्थी-प्रवाह दशकों और सदियों से होते रहे हैं—प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध, उपनिवेशवाद का पतन और विभाजन (जैसे भारत/पाकिस्तान 1947), बीसवीं सदी के अंत और इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में अफ़ग़ानिस्तान का पलायन, रुवांडा और बाइफ़्रॉन्टियर्स के नरसंहारों के बाद के विस्थापन, सीरिया के गृहयुद्ध के प्रवाह और हालिया वर्षों में यूक्रेन/सूडान/म्यांमार/वENEzuela/एथियोपिया आदि के संकट—सभी बड़े शरणार्थी घटनाक्रम रहे हैं। कुछ घटनाएँ बहुत तीव्र परंतु छोटी अवधि की रफ़्तार से हुईं (जैसे 1971 का बांग्लादेश विस्फोट), जबकि कुछ लंबचौड़े हो गए और वर्षों तक बनी रहीं (जैसे सीरिया का संकट)। निकटवर्ती देशों में शरणार्थियों का बोझ सबसे अधिक दिखाई देता है—अधिकतर लोग अपनी सीमा के पास के देशों में जाते हैं, जिसमें कभी-कभी न्यूनतम संसाधन भी उन्हें ढूँढने पड़ते हैं। वैश्विक संस्थान—विशेषकर UNHCR (United Nations High Commissioner for Refugees)—शरणार्थियों के आंकड़े, शरणस्थल संचालन और संरक्षण नीतियाँ बनाते/रिपोर्ट करते हैं और संकट के समय मानवीय सहायता समन्वय करते हैं। हाल के आधिकारिक आँकड़ों और UNHCR के Global Trends रिपोर्टों के अनुसार अंतिम वर्षों में विश्व में जबरन विस्थापन—अन्तरराष्ट्रीय शरणार्थी, आंतरिक विस्थापित (IDPs) और शरणार्थी-आवेदक—सभी श्रेणियों में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई है; बड़ी संख्या में लोग युद्ध, उत्पीड़न और चरम जलवायु घटनाओं से भागे हैं (यह आँकड़ा UNHCR के वार्षिक Global Trends में विस्तार से मिलता है)।
शरणार्थी घटना की तीव्रता और प्रभाव को समझने के लिए पिछले सौ वर्षों के बड़े घटनाक्रमों पर देखना उपयोगी है: द्वितीय विश्व युद्ध (लगभग 60 मिलियन लोग विस्थापित हुए) ने आधुनिक शरणार्थी समस्या को वैश्विक आकार दिया; उपनिवेशों के टूटने और नए राष्ट्रों के उद्भव ने नई प्रवाह रेखाएँ तैयार कीं; तर्कसंगत रूप से, 20वीं सदी के मध्य से 21वीं सदी की शुरुआत तक शरणार्थियों के पैटर्न में बदलाव आया—अब बड़े पैमाने पर शरणार्थी संकटों के होते ही स्थानीय पड़ोसी देश अत्यधिक बोझ झेलते हैं, और तब अंतरराष्ट्रीय रिसेटलमेंट (किसी तीसरे देश में बसाने) छोटी मात्रा में ही होता है क्योंकि अधिकांश शरणार्थी वर्षों तक अस्थायी-आश्रय ही पाते हैं। उदाहरण के लिए, 2010s के दशक में सीरिया से लाखों लोग निकलकर पड़ोसी तुर्की, लेबनान और जॉर्डन में पहुँचे; 2020s में यूक्रेन से लाखों लोगों का पलायन हुआ; अफ़ग़ानिस्तान के दशकों-पुराने विस्थापन ने पाकिस्तान व ईरान को वर्षों तक प्रभावित किया; हाल के वर्षों में वेनेज़ुएला से बहुराष्ट्रीय प्रवाह भी नया रूप ले चुका है—इन्हीं उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि शरणार्थी संकट स्थायी, पुनरावर्ती और सीमा-पार आर्थिक व सामाजिक चुनौतियाँ उत्पन्न करता है।
शरणार्थियों के वैधानिक अधिकारों, पुनर्वास विकल्पों और अंतरराष्ट्रीय दायित्वों का प्रश्न जटिल है। कई प्रत्याशित उपाय मौजूद हैं—तुरंत मानवीय राहत (खाद्य, पानी, आश्रय, स्वास्थ), सुरक्षा और कानूनी मान्यता (asylum determination), पुनर्स्थापन (resettlement), अस्थायी रक्षा तथा अंततः जब संभव हो तो सुरक्षित और गरिमापूर्ण वापसी। लेकिन वास्तविकता यह है कि अंतरराष्ट्रीय सहायता अक्सर अपर्याप्त, राजनीतिक रूप से विभाजित और निधि-संकटग्रस्त होती है; इससे शरणार्थी स्थितियाँ वर्षों तक अस्थायी और अनिश्चित बनी रहती हैं। लगभग सत्य यह भी है कि अधिकांश शरणार्थी दुनिया के उन देशों में शरण लेते हैं जो स्वयं सीमित संसाधनों वाले होते हैं—इसने वैश्विक न्याय के प्रश्न खड़े कर दिए हैं कि वित्तीय बोझ और मानवधिकार उत्तरदायित्व किस तरह बराबर बांटे जाएँ।
अन्ततः शरणार्थी संकट का मूल संकटकालीन अर्थ यही है: जब घर सुरक्षित नहीं रह जाता, इंसान हिस्से-हिस्से में हिला-डुला कर अपने-अपने जीवन की रक्षा के लिए देश छोड़ते हैं—यह राजनीति से ऊपर मानवीय वास्तविकता है और इसे समझना, गले लगाना और प्रभावी तौर पर जवाब देना 21वीं सदी का मानवीय परीक्षण है।
शरणार्थी संकट—मानव जीवन पर प्रभाव
शरणार्थी संकट का सबसे तुरन्त और स्पष्ट प्रभाव व्यक्ति-स्तर पर असुरक्षा, स्वास्थ्य जोखिम, भूख और आवास-व्यवस्था का टूटना है। विस्थापित परिवार अक्सर युद्ध-क्षितिज, हिंसा, ट्रॉमा और व्यक्तिगत जद्दोजहद के साथ भागते हैं; रास्ते में महिलाएँ, बच्चे और बूढ़े लोग सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं। गम्भीर स्वास्थ्य जोखिम—घरेलू चिकित्सा उपचार का अभाव, संक्रामक रोगों का फैलना, पोषण-घाटा और मानसिक स्वास्थ्य संकट—अक्सर शरणार्थी शिविरों या अस्थायी आश्रयों में रिपोर्ट होते हैं। शिक्षा बाधित होती है: बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, जिससे आने वाली पीढ़ियों की क्षमता और सामाजिक पूँजी कमज़ोर पड़ जाती है। आर्थिक रूप से शरणार्थियों का असर दोनों तरफ होता है—आश्रय देने वाले क्षेत्रों में स्थानीय संसाधनों पर दबाव और रोज़गार की प्रतिस्पर्धा बढ़ सकती है; वहीं शरणार्थियों के लिये रोज़गार के सीमित अवसर गरीबी चक्र बनाते हैं। सामाजिक प्रभाव सूक्ष्म व दीर्घकालिक दोनों होते हैं—स्थानीय समुदायों में सामाजिक तनाव, संस्कृति-आधारण अंतर, संसाधन-वितरण संघर्ष और कभी-कभी आंतरिक वैमनस्य पैदा होता है; दूसरी ओर यदि समावेशी नीतियाँ अपनाई जाएँ तो शरणार्थी आर्थिक योगदान, कौशल और विविधता लाकर स्थानीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ भी कर सकते हैं। शरणार्थी संकट का राजनीतिक प्रभाव रणनीतिक और व्यापक है—बढ़ती शरणार्थी संख्या से राष्ट्रवादी और प्रतिरोधी राजनीति को बढ़ावा मिलता है, सीमाएँ सख्त होती हैं, और अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर दबाव आता है; देशों के बीच कूटनीतिक तनाव बढ़ सकते हैं यदि शरणाधारक-स्रोत देशों के साथ संबंध तंग हों। पर्यावरणीय असर भी होता है—अस्थायी शिविरों के लिए लकड़ी, पानी और जमीन की मांग स्थानीय पारिस्थितिकी को दबाती है, जिससे जंगलों की कटाई, भूमि क्षरण और जल-स्तर पर बोझ दिखाई देता है। अंततः शरणार्थी संकट केवल राहत-कार्य नहीं; यह दीर्घकालिक पुनर्वास, आर्थिक पुनर्रचना, स्थानीय-राष्ट्रीय नीति सुधार और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय/राजनीतिक साझेदारी की माँग करता है—न्यूनतम अभियानिक राहत के ऊपर टिकाऊ समाधान आवश्यक हैं।
पिछले 100 वर्ष: पैमाना — कौन सा देश सबसे अधिक शरणार्थी पड़ा और किस देश से सबसे अधिक लोग निकले? (संस्मरणात्मक और आंकड़ों का सार)
यदि हम पिछले सौ वर्षों के सबसे बड़े विस्थापन देखें तो द्वितीय विश्वयुद्ध (1939–1945) ने सबसे व्यापक और तात्कालिक विस्थापन उत्पन्न किया—अनुमानित रूप से ≈60 मिलियन लोग विस्थापित हुए थे (बाहरी शरणार्थी और आंतरिक विस्थापन का मिश्रण)। इसके बाद 1947 का भारत-पाकिस्तान विभाजन (≈10–20 मिलियन) एक और महान जनसंख्या-स्थानांतरण था। शीत युद्ध व उपनिवेशवाद के दशकों में अफ़्रीका व एशिया से निकलने वाले विस्थापन भी बहुत बड़े पैमाने पर हुए। 21वीं सदी में, आबादी-आधारित आँकड़ों के सन्दर्भ में, कुछ हालिया स्रोत बताते हैं कि “सबसे अधिक शरणार्थियों को होस्ट करने वाला वर्तमान देश” — तुर्की है (अरबों की तुलना में लाखों शरणार्थी; हालिया UN/एमआईग्रेशन आंकड़ों के अनुसार तुर्की में लगभग 3–4 मिलियन शरणार्थी/अन्य विस्थापित लोग थे)।
“किस देश से सबसे अधिक लोग निकले” — अगर हम ऐतिहासिक और समेकित दृष्टि लें तो द्वितीय विश्व युद्ध के समय यूरोप के भीतर सर्वाधिक लोग विस्थापित हुए; समकालीन दशकों में सीरिया (2011 के बाद), अफ़ग़ानिस्तान (1979 के बाद लगातार), और यूक्रेन (2022 के बाद) जैसी अभूतपूर्व प्रवाह-उत्पन्न देशों को प्रमुख तौर पर गिना जाएगा। उदाहरण के लिए, 2010s–2020s में सीरिया के लाखों और यूक्रेन से 2022 के बाद मिलियन-प्लस लोग सीमाएँ पार कर गए; अफ़ग़ानिस्तान ने दशकों तक पाकिस्तान और ईरान की ओर भारी प्रवाह उत्पन्न किया। इन प्रवाहों के प्रमुख कारण युद्ध, गृहयुद्ध, राजनीतिक उत्पीड़न, तथा हाल के दशकों में नरमता-नेतृत्व और आतंकवादी समूहों की सक्रियता रहे हैं।
कहने का सार: ऐतिहासिक रूप से “सबसे ज्यादा शरणार्थी होस्ट करने वाला” देश दशक-दशक बदलता रहा—पर समकालीन 2020s में तुर्की और जर्मनी जैसे देश (यूरोप/निकट-पूर्व/अफ्रीका की सीमाओं के निकट) सबसे बड़े होस्ट बनकर उभरे—जबकि “सबसे अधिक लोग बाहर निकले” के मामले में द्वितीय विश्व युद्ध और 1947 के विभाजन ही इंटीग्रल तरीके से सबसे बड़े मापदण्ड हैं; समकालीन संकटों में सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान, यूक्रेन और सूडान/दक्षिण-सूडान प्रमुख स्रोत रहे हैं।
शरणार्थी का चेहरा केवल आँकड़ा नहीं, एक नाम, एक घर, एक कहानी और अक्सर एक टूटा परिवार होता है। वे वह हैं जिन्होंने अपने घरों को अनायास छोड़ा, अमानवीय परिस्थितियों से बचने के लिये दौड़ा, आँखों में आशा और हाथों में बहुत कम सामान लिए। इतिहास बार-बार सिखाता है कि गृहयुद्ध, उत्पीड़न और प्राकृतिक तबाही के समय मानवता की परीक्षा लेकर आती है—और हमारी प्रतिक्रिया बताती है कि हम किस ओर झुकते हैं: दीवारों और डर की ओर या सहानुभूति और साझा-मानवता की ओर। आज शरणार्थी संकट केवल मानवीय मदद का मामला नहीं है—यह हमारे समय की नैतिक और राजनीतिक चुनौती है। हमें समझना होगा कि जब कोई परिवार घर छोड़ता है तो उसकी पीड़ा व्यक्तिगत होती है, पर इसका प्रभाव सामूहिक और वैश्विक है—क्योंकि शरणार्थी तब बनते हैं जब कोई सामाजिक ताना-बाना टूट जाता है, राज्य सुरक्षा विफल हो जाती है, और इंसानियत के प्रतिरूप आहात होते हैं।इस संकट का मुकाबला करने के लिये केवल राहत देना पर्याप्त नहीं; हमें संरचनात्मक कारणों और दीर्घकालिक समाधान की तरफ़ भी ध्यान देना होगा। इससे पहले कि हम किसे ‘हमारी समस्या’ कहें, यह समझें कि शरणार्थियों के लिये आश्रय देना न केवल करुणा है बल्कि बुद्धिमत्ता भी है—क्योंकि स्थिरता और सुरक्षा तभी कायम हो सकती है जब विस्थापितों को सम्मान और अवसर मिले। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और कानूनी सुरक्षा—यह चार अहम स्तम्भ हैं जिनके बिना शरणार्थी जीवन बस 'टिकना' बनकर रह जाता है; पर जब इन्हें प्रदान किया जाता है तो शरणार्थी समुदाय स्थानीय अर्थव्यवस्था और समाज में योगदान देने लगते हैं।हमारे कदम छोटे, पर अर्थपूर्ण हो सकते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर—शरणाथी राहत के लिये दान, स्थानीय NGOs के साथ स्वेच्छा सेवा, और शरणार्थी-समुदायों के प्रति सामुदायिक समावेशन से आरम्भ होता है। संस्थागत स्तर पर—सरकारों को दीर्घकालिक पुनर्वास, कार्य अनुमति (work permits), भाषा-सहायता, और शिक्षा कार्यक्रम लागू करने चाहिए। वैश्विक स्तर पर—धन का न्यायसंगत वितरण, होस्ट देशों के लिये वित्तीय सहायता और नीतिगत साझेदारी अनिवार्य है ताकि पड़ोसी देशों पर बोझ न बढ़े।इतिहास की सबसे बड़ी सीख यह है कि जब देशों ने मानवता को प्राथमिकता दी, तब पुनर्निर्माण संभव हुआ—द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की योजना, भागीदारी वाले पुनर्निर्माण के उदाहरण और 20वीं सदी के बाद के कई शरणार्थी पुनर्वास कार्यक्रम इसकी जीती-जागती मिसालें हैं। आज के वैश्विक संकटों—युद्ध, जलवायु-प्रेरित विस्थापन, और राजनीतिक उत्पीड़न—के समाधान के लिये उसी तरह दीर्घकालिक सोच और साझा जिम्मेदारी आवश्यक है।हमारे लिए प्रश्न है: क्या हम सहानुभूति और मानवता के उस छोटे-छोटे कदम उठाने को तैयार हैं जो आज बहुसंख्यक पीड़ितों के जीवन में सुरक्षा और आशा लौटा सकता है? जवाब तभी सकारात्मक होगा जब हम दीवारों को नहीं बल्कि पुलों को बनायेंगे—पुल जो न केवल सीमाएँ जोड़ें बल्कि लोगों के दिलों में भरोसा और भविष्य की उम्मीद जगाएँ।आइए हम शरणार्थी की सच्ची मानवता को पहचानें—उनकी कहानियाँ सुनें, उन्हें काम करने दें, उनके बच्चों को शिक्षा दें और उन्हें अस्थायी-रूप में न देखकर नए नागरिक-योग्य साथियों के रूप में ग्रहण करें। यही वास्तविक मानव प्रधानता और सच्ची सुरक्षा है—क्योंकि स्थिर और इंसाफ़ी समाज वही बनता है जहाँ किसी भी इंसान को “अमानव” नहीं समझा जाता। आने वाली पीढ़ियाँ हमारी कार्रवाईयों को याद रखेंगी—यदि हम आज अपनी संवेदना और नीति के साथ सही चुनाव करें तो हम वैश्विक अस्थिरता को कम करने में निर्णायक योगदान दे सकते हैं। शरणार्थी संकट को मानवता के प्रति हमारी परीक्षण-प्रक्रिया समझिए और उत्तर दीजिए—सहानुभूति से, साझेदारी से और दीर्घकालिक समाधान के साथ। प्रकृति ने हमें यह दुनिया साझा करने के लिये दी है; आइए हम उसी साझा दायित्व को निभाएँ और शरणार्थियों के लिये दुनिया को थोड़ा और सुरक्षित, थोड़ा और इंसाफ़ी बनायें।
प्रकृति नमामि जीवनम्।
यह अंश हमारी पुस्तक सर्व साम्य अद्वैत प्रकृति चेतनवाद दर्शन — भाग 1 : नव सवित तत्व प्रकृतिवाद से लिया गया है। इस पुस्तक का उद्देश्य प्रकृति की सर्वोच्च सत्ता की स्थापना करके विश्व में शांति स्थापित करना है, ताकि धरती पर रहने वाले सभी जीवों के जीवन में शांति बनी रहे, मनुष्य के जीवन में भी संतुलन और सौहार्द रहे, तथा सभी मनुष्य आपस में मिल-जुलकर अपने विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकें। हमारी प्रकृति से प्रार्थना है कि धरती पर स्थित प्रत्येक जीव सुखी रहे, स्वस्थ रहे।” आप भी चाहते हैं विश्व में शांति तो हमसे संपर्क करें।
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